भड़का रहे हैं आग...
भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागार से हम;
ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम;
कुछ और बड़ गए अंधेरे तो क्या हुआ;
मायूस तो नहीं हैं तुलु-ए-सहर से हम;
ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है;
क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके;
कुछ ख़ार कम कर गए गुज़रे जिधर से हम।
भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागार से हम;
ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम;
कुछ और बड़ गए अंधेरे तो क्या हुआ;
मायूस तो नहीं हैं तुलु-ए-सहर से हम;
ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है;
क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके;
कुछ ख़ार कम कर गए गुज़रे जिधर से हम।
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