मकान चाहे कच्चे थे
लेकिन रिश्ते सारे सच्चे थे…
लेकिन रिश्ते सारे सच्चे थे…
चारपाई पर बैठते थे
पास पास रहते थे…
पास पास रहते थे…
सोफे और डबल बेड आ गए
दूरियां हमारी बढा गए…
दूरियां हमारी बढा गए…
छतों पर अब न सोते हैं
बात बतंगड अब न होते हैं…
बात बतंगड अब न होते हैं…
आंगन में वृक्ष थे
सांझे सुख दुख थे…
सांझे सुख दुख थे…
दरवाजा खुला रहता था
राही भी आ बैठता था…
राही भी आ बैठता था…
कौवे भी कांवते थे
मेहमान आते जाते थे…
मेहमान आते जाते थे…
इक साइकिल ही पास था
फिर भी मेल जोल था…
फिर भी मेल जोल था…
रिश्ते निभाते थे
रूठते मनाते थे…
रूठते मनाते थे…
पैसा चाहे कम था
माथे पे ना गम था…
माथे पे ना गम था…
मकान चाहे कच्चे थे
रिश्ते सारे सच्चे थे…
रिश्ते सारे सच्चे थे…
अब शायद कुछ पा लिया है,
पर लगता है कि बहुत कुछ गंवा दिया…
पर लगता है कि बहुत कुछ गंवा दिया…
जीवन की भाग-दौड़ में –
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है?
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी,
आम हो जाती है।
आम हो जाती है।
एक सवेरा था,
जब हँस कर उठते थे हम…
जब हँस कर उठते थे हम…
और
आज कई बार,
बिना मुस्कुराये ही
शाम हो जाती है!!
बिना मुस्कुराये ही
शाम हो जाती है!!
कितने दूर निकल गए,
रिश्तो को निभाते निभाते…
रिश्तो को निभाते निभाते…
खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते पाते…
अपनों को पाते पाते…
That's nice
ReplyDeletePoem where it talks about differences and relationships between people in the present and the past😀🎭🎭🎭🌌