जिन्दगी की दौड़ में,
तजुर्बा कच्चा ही रह गया…
हम सिख न पाये ‘फरेब’
और दिल बच्चा ही रह गया !
बचपन में जहां चाहा हंस लेते थे,
जहां चाहा रो लेते थे…
पर अब मुस्कान को तमीज़ चाहिए
और आंसुओ को तन्हाई !
हम भी मुस्कराते थे कभी बेपरवाह अन्दाज़ से…
देखा है आज खुद को कुछ पुरानी तस्वीरों में !
चलो मुस्कुराने की वजह ढुंढते हैं…
जिन्दगी तुम हमें ढुंढो…
हम तुम्हे ढुंढते हैं …!!!
तजुर्बा कच्चा ही रह गया…
हम सिख न पाये ‘फरेब’
और दिल बच्चा ही रह गया !
बचपन में जहां चाहा हंस लेते थे,
जहां चाहा रो लेते थे…
पर अब मुस्कान को तमीज़ चाहिए
और आंसुओ को तन्हाई !
हम भी मुस्कराते थे कभी बेपरवाह अन्दाज़ से…
देखा है आज खुद को कुछ पुरानी तस्वीरों में !
चलो मुस्कुराने की वजह ढुंढते हैं…
जिन्दगी तुम हमें ढुंढो…
हम तुम्हे ढुंढते हैं …!!!
Who is the writer of this poem
ReplyDeleteSri harivanshrai bacchan ji
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